त्रिपुरा
का चाकमा लोक साहित्य
डॉ.विनोद कुमार मिश्र*
सुश्री नवीना चाकमा#
जब भी हम ‘लोक’ की बात करते हैं तो हमारा ध्यान
अनायास ही उस सुदूर अंचल की ओर चला जाता है, जहाँ हम पले-बढ़े होते हैं, जहाँ हमारा
विकास हुआ है अथवा जिस समुदाय को हम जानना-समझना चाहते हैं, उस समुदाय का एक ऐसा
चित्र हमारे सामने उपस्थित होने लगता है जिसके साथ हमारा तादात्म्य जुड़ा होता है।वास्तव
में उस समुदाय के जन ही इस ‘लोक’ के प्रहरी होते हैं औरउन्हीं की अनुभूतियों से जो
साहित्य जन्म लेता है वह ‘लोकसाहित्य’ की श्रेणी में आता है।लोकसाहित्य समाज
द्वारा, समाज के लिए, समाज के अपने अनुभव से रचा जाता है। उसकी अस्मिता व्यक्ति से
नहीं बल्कि पीढ़ियों से उसके सामूहिक संवेदना से जुड़ी रहती है।
जब हम ‘लोकसाहित्य’ की बात करते
हैं तो एक और छवि हमारे सामने जो छवि आती है वह है – निरक्षर, गंवारु अथवा भदेसपन
की। संभवत: इसी छवि को ध्यान में रखते हुए ‘डिक्शनरी ऑव लिटरेरी टर्म्स’ में
जे.ए.कडन ने कहा था कि ‘लोकसाहित्य(या ज्यादा ठीक होगा लोकगीत) आदिम और निरक्षर
लोगों की रचना है और इसलिए इसका अधिकतम अंश मौखिक परंपरा का है।’कडन के साथ ही लोक साहित्य के प्रसिद्ध विवेचक माने जाने
वाले मि. क्रो का भी यही मानना है कि यह ‘...वह गीत हैं जो अशिक्षितों में जन्म
लेते हैं।’लोक साहित्य को इस तरह से देखना उनके महत्त्व का सम्यक मूल्यांकन करना
नहीं होगा; क्योंकि ‘जो लोक साहित्य हमारे पास है, वह साहित्य के परंपरागत रूढ़
मानदण्डों से कितना ही अपूर्ण या अशुद्ध हो, पर ‘असभ्य’ नहीं है। वह एक खान की तरह
है, जिसमें संस्कृति की अनेक बातें दबी पड़ी हैं।’
लोकसाहित्य हमारी संस्कृति और उससे निर्मित संस्कारों से
सृजित होता है तथाइसमें हमारे सांस्कृतिक विकास की वे जड़ें पायी जाती हैं जिनके
चलते मनुष्य अपने वजूद का निर्माण करता है।हिन्दी के प्रसिद्ध लोकवादी विवेचक पं.
विद्यानिवास मिश्र ने ‘लोक’ को कुछ इस तरह से देखा है-“मैं बचपन से ही लोक के सजीव
क्षेत्र में रहता रहा हूं। उस क्षेत्र के प्रति दया-दृष्टि मुझे बहुत चुभती है।
मैंने अपने जीवन के आस-पास उसे छंदोमय गति से थिरकते हुए पाया है।”वास्तव में
मानवीय संवेदना की कोख से इसका जन्म होता है और मानवीय अनुभवों के महत्त्वपूर्ण
कथ्यों को शब्द देने का काम भी लोकसाहित्य करता है। लोकसाहित्य का कोई पृथक
शास्त्र नहीं है बल्कि वह नदी की भाँति अपने किनारों का निर्माण स्वयं करता है।
लोकसाहित्य एक ओर जहाँ अतीत का स्मरण कराता है, वहीं दूसरी ओर वर्तमान के सुख-दुख
से जोड़ता भी है। यह समाज के प्रति प्रतिबद्ध भी होता है और प्रासंगिक भी बना रहता
है। वह चिरपुरातन होते हुए भी चिरनूतन है। वर्तमान की वेदना या आधुनिकता की चेतना
किसी एक समय से बंधकर नहीं चलती, वह अपने अतीत के संदर्भों से जुड़कर भविष्य की
संभावनाओं पर आंख रखती है तथा अपने समकालीन समाज की मूल्यवत्ता को जांचती-परखती और
पहचान कराती रहती है।
प्रत्येक भाषा के गीतों में परंपरा और सांस्कृतिक गौरव की
अमिट छाप होती है। सामाजिक परिवर्तनों और आंदोलनों के प्रभाव को भी लोकसाहित्य के
माध्यम से जाना जा सकता है। लोकसाहित्य में रचना जाति और समुदाय की वस्तु बनकर
अपनी मौलिकता का विलय करती है क्योंकि वह वाचिक परंपरा का वांड्.मय है जिसकी कोई
सीमा नहीं है। बहुत सी साहित्यिक कृतियां भी लोकगायक के कंठ में आकर लोकगीतों में
ढल जाती हैं। इसलिए लोकगीतों के मूल पाठ का निर्णय दे पाना कठिन है।
पूर्वोत्तर भारत की सांस्कृतिक विरासत के रूप में पहचाने जाने वाले राज्य ‘त्रिपुरा’ का
परिचय रामायण-महाभारत काल से मिलता है। यहाँ पर मिले-जुले सामुदायिक (आदिवासी और
गैरआदिवासी) समाजके रीति-रिवाज और लोक-विश्वास एक साथ देखे जा सकते हैं। वस्तुत:
त्रिपुरा में 19 जनजातियां पाई
जाती हैं,जिनमें बौद्ध धर्म में विश्वास करने वाली चाकमा जनजाति का चौथा स्थान है।
यह जनजाति त्रिपुरा के कैलाशहर, अमरपुर, सबरूम, उदयपुर और बिलोनिया आदि स्थानों
में विशेष रूप में मिलती है। त्रिपुरा में इस जनजाति का आगमन 12वीं शताब्दी
में बंगाल के एक मुस्लिम शासक के काल में हुआ था। प्रो. सत्यदेव पोद्दार के शब्दों
में “क्षेत्रीय इतिहास से पता चलता है कि त्रिपुरा की चाकमा जनजाति तिब्बती-आदिम
जनजाति से आई है और बंग्लादेश की एक प्रसिद्ध जनजाति है। त्रिपुरा के चकमा अपने आप
को हीनयान संप्रदाय से जोड़ते हैं।... चाकमा जनजातियों के बुद्धिजीवी विश्वास करते
हैं कि चाकमा शब्द की उत्पत्ति ‘शक्य’ शब्द से हुई है। प्राचीन काल में ‘शाक्य हिमालय’
के क्षेत्र में रहा करते थे। नेपाल के नज़दीक गौतम बुद्ध का जन्म इसी वंश में हुआ
था। उनका मानना है कि आपसी संघर्षों के परिणामस्वरूप, शाक्यों का एक दल बर्मा
अराकान होते हुए, पूर्वी भारत में आया और वे अपने को उसी वंश का हिस्सा बताते हैं।
बर्मा के बाहर से आए लोगोंको ‘थेक’ कहा जाता था, जिसे कूकी लोग थेन कहते थे और मौग
उसे ‘साक’ कहते थे। त्रिपुरी में उसे ‘चाखुमा’ और चटगांव की क्षेत्रीय बोली में ‘चम्मुआ’
कहा जाता था। लेकिन चाकमा उसे चागमा उच्चारण करते थे। ब्रिटिश काल में उसका
उच्चारण चागमा से चाकमा हो गया और बाद में उसे चाकमा लिखा जाने लगा।”
हर जनसमुदाय के अपने रीति-नीति और लोक-विश्वास होते हैं,
जिनसे उनकी सामाजिक-धार्मिक आदि भावनाओं का पता चलता है, जिन्हें हम लोकसाहित्य
में देख सकते।इस अर्थ में ‘चाकमा लोक साहित्य’ इस जनजाति की एक अमूल्य संपदा है।
जनसमूह के हर्ष, विषाद, भय, प्रेम, शोक, सामाजिक रीति-नीति, युद्ध-विग्रह,
शौर्य-वीर्य, प्रेम-विरह आदि तमाम भावनाएं इस लोक साहित्य में मिलती है। इस
क्षेत्र में सारा लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक परंपराओं एवं प्रथाओं का संसार
समा जाता है। इस साहित्य को मूलत: दो भागों में बाँटा जाता है- मौखिक एवं लिखित।
मौखिक लोकसाहित्य में लोकगीत, पहेलियाँ, लोक-कथाएंएवं लिखित लोक साहित्य में कहानी,
भित्तिक, पालागान (लोक गाथा), बारहमासा, एवं मंत्रसाहित्य आते हैं।
युगों से चली आ रही विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक परंपराओं के प्रवाह को संजोए हुए ही चाकमा लोकसाहित्य का विकास हुआ है।
इस साहित्य में मानव हृदय बोलता है तथा यह वाचिक परंपरा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी तक हस्तांतरित होता रहा है। इस साहित्य के माध्यम से ही हम इस जाति के
प्राचीन धरोहरों, अन्य विविध तथ्यों एवं उनके जीवन-स्वरूप व सभ्यता को जान पाते
हैं। चाकमा लोकसाहित्य को हम निम्नलिखित विधाओं के माध्यम से समझ सकते हैं-
लोकगीत
वास्तव में मनुष्य की तमाम उपलब्धियों में गीत का
महत्वपूर्ण स्थान है। सुर-संयोग से ताल व लय सहित वाद्ययंत्र के सहारे गाए
जानेवालेगीत सभी पसंद करते हैं। चाकमा भाषा में संगीत को भी ‘गीत’ कहा जाता है। गीत
जितनामानव के स्वाभाविक और भावनात्मक स्पंदनों से संबद्ध है, उतना वाणी का कोई और
रूप नहीं। प्राचीन काल में चाकमा समाज में ‘गेंखूली’ नाम से परिचित एक श्रेणी के
लोग, गीत गाकर ही अपनी जीविका का निर्वाह करते थे। वर्तमान समय में उनकी संख्या घट
गई है, परंतु ग्रामांचल में अभी भी लोग‘गेंखूली’ गाते हैं। वे सब सिर्फ छोटे-छोटे
गीत ही नहीं, अपितु दीर्घ पालागान (Ballad) भी गाया करते हैं जो कि रातभर गाने पर भी खत्म नहीं होता।
चाकमा जनजाति गीत एवं नृत्य प्रिय जनजाति है। सारा दिन परिश्रम करने के बाद शाम को
वे अपनी थकान दूर करने के लिए वाद्य-यंत्र सहित गीत गाते हुए झूम उठते हैं।चाकमा
जनजाति में कई प्रकार के लोकगीत पाए जाते हैं-
उभोगीत
चाकमा लोकगीतों में ‘उभोगीत’ सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है।युवक-युवतियों
इस गीत के द्वारा ही एक दूसरे से अपनी मनोव्यथा एवं प्रेम दर्शाते हैं। कहा जाता
है कि पुराने जमाने में युवतियाँ ‘उभोगीत’ नहीं गाती थीं। अगर वे यह गीत गातीं तो
वह अच्छे परिवार एवं संस्कारों की नही मानी जाती थीं। यहाँ तक कि उनकी शादी न होने
की भी संभावना बनी रहती थी, पर आधुनिक युग के संस्पर्श से इन मनोभावों में बदलाव आया
तथाइन गीतों के माध्यम से प्रेमी अपने हृदय की प्यास, हर्षोल्लास, उदासीनता, विरह-व्यथा,
प्रेमालाप, सुख-दुख: आदि व्यक्त करता है। इन सभी गीतों में प्राय: दो चरण ही होते
हैं। नितांत सूक्ष्म होने के कारण ही गायक सुदीर्घ ध्वनि (उ...उ...उ...उ) से इन
गीतों को अपेक्षाकृत दीर्घ बताते हैं। जैसे-
उदासभाव
सुपारि
काबि खाने खान
उदे
मनत्तुन नाना गान उ...उ...उ...
उक्त गीत में प्रेमी-प्रेमिका केमन की उदासीनता व्यक्त हुई
है। ‘उभोगीतों’ को विभिन्न रूपों में बाँटा गया है। यथा- टेंगा-भांगा गीत, झरा गीत
आदि। इसके अतिरिक्त चाकमा लोकगीतों के कुछ रूप और भी हैं -संस्कार संबंधी गीत, ऋतु
संबंधी गीत, श्रम संबंधी गीत, पूजापाठ संबंधी गीत इत्यादि। लोकगीतों का विषय
विस्तार ‘लोक’ के संपूर्ण जीवन में मिलता है। इसमें श्रृंगार, विरह, श्रम,
बारहमासा, लोरी सबकुछ निहित हैं। इसके अलावा लोकगाथा एवं मंत्रसाहित्य का सुंदर
स्वरूप भी हमें देखने को मिलता है।
संस्कारगीत
प्राचीन काल से ही
चाकमा समाज में संस्कारों का महत्व रहा हैताकि मनुष्य का जीवन दैहिक और भौतिक रूप
से सुव्यवस्थित हो सके। संस्कारों के माध्यम से ही मनुष्य का सामाजीकरण होता है और वह अपने दायित्त्वके प्रति सचेत रहता
है। संस्कार व्यक्ति के विकास की बुनियाद हैं, धरोहर हैं। सुख-दुख मानव जीवन रूपी सिक्के
के दो पहलू होते हैं। इसलिए विघ्न-बाधाओं एवं अशुभ शक्तियों से रक्षा के लिए भी संस्कारकिए
जाते हैं।पूजा-पाठ व मंत्रों द्वारा संपन्न संस्कार से ही विपत्तियोंका नाश हो सकता
है। चाकमा समाज में संस्कार तो हैं परन्तु इससे जुड़े गीत कम उपलब्ध हैं। चाकमा
समाज मेंज्यादातर पूजा-पाठ मंगलकारी, परिशुद्धिकरण, बुद्ध, मंगलसूत्र, संघदान आदि
को केन्द्र में रखकर ही किए जाते हैं ताकि घर के सभी सदस्य सुखी रहें, उनका कोई
अनिष्ट न हो।
जन्म एवं परिशुद्धिकरण
जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत साधारण चाकमा परिवार विभिन्न संस्कारों
से आबद्ध रहते हैं। शिशु जब मातृगर्भ से जन्म लेता है तब ‘दाई’ उसकी नाड़ी काटती है
एवं कभी-कभार नामकरण भी स्वयं ही करती है। चाकमा भाषा में दाई को ‘ओझा बूढ़ी’ कहते
हैं। सन्तान उत्पत्ति के बाद माँ के स्वास्थ्य की उन्नति के लिए उसे सगे-संबंधी, रिश्तेदार,
पड़ोसी सभी सुखाद्य ‘भात-मजा’ (चावल के साथ विभिन्न प्रकार के व्यंजन) देते हैं। जब
शिशु दो महीने का होता है तब माँ के शुद्धिकरण के लिए ‘घिला-कजई पानी’ नामक
अनुष्ठान का आयोजन किया जाता है। उस अनुष्ठान में दाई माँ को नदी में ले जाकर
विधिवत् पूजा एवं मंत्र पढ़कर नहलाती है। उसदिन दाई शिशुको आनुष्ठानिक
रीति-रिवाजों के साथ माँ की गोदी में बिठाकर आशीर्वाद देती है। इसके बदलेउनको
पुरस्कार स्वरूप अंगवस्त्र (पिनोन-खादी), पैसा एवं एक बोतल शराब मिलती है। जब
बच्चा दो साल का हो जाता है तब उसे पालने में झुलाया जाता है और माँ या घर के अन्य
सदस्यों द्वारा ‘ओली गीत’ (लोरी) सुनाकर उसे सुलाया जाता है।
विवाह
चाकमा समाज में विवाह एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्कार है।
इसमें रीति-रिवाजों का अद्भुत एवं चित्ताकर्षक रूप देखने को मिलता है। प्राचीन
काल में जिन रीतियों का पालन किया जाता था, वह सब समय के साथ लुप्त हो गयी हैं।
साधारणत: चाकमा समाज में तीन बार बहू को मांगने की प्रथा प्रचलित है, जिसे चाकमा
भाषा में ‘बौ-चाह्ना’ कहते हैं। प्रथम विवाह प्रस्ताव को ‘एकपुर’, द्वितीय विवाह प्रस्ताव
को ‘द्विपुर’ एवंतृतीय विवाह प्रस्ताव को ‘तीनपुर’ कहा जाता है। ये प्रस्ताव वर
पक्ष की तरफ से कन्या पक्ष से किए जाते हैं। इससे पता चलता है कि चाकमा समाज में
स्त्रियों का कितना सम्मान होता है। ‘तीनपुर’ विवाह प्रस्ताव में ‘मद-पिल्यां’
(शराब एवं जरूरत का सामान) सहित उपस्थित होकर विवाह की तारीख ठीक की जाती है।
कन्या पक्ष ‘दाभा’ (संकल्प) के तौर पर वर पक्ष से चावल, सुअर, शराब, पैसा या फिर
कन्या के लिए अलंकार आदि मांग सकते हैं।
विवाह में ‘साबाला’ नामधारी एक व्यक्ति विवाह के समय
दूल्हा-दुल्हन को ठीक प्रकार से परिचालित करते हैं। वह व्यक्ति दूल्हे का जीजा
होताहै। दुल्हन के लिए ‘फूलबारे’ (बाँस से तैयार किया गया पात्र विशेष जिसमें
दुल्हन को सजाने के लिए रखा गया जरूरी समान) अपनी पीठ पर लादकर लाती है वह दूल्हे
की छोटी बहन होती है।
विवाह के अंतिम पर्व में ‘खाना-सिराना एवं बौ-गजानि’ अनुष्ठान
होता है। ‘खाना-सिराना’ एक विशेष प्रकार का भोज होता है जो बुजुर्गों द्वारा
संपंन्न किए जाते हैं। ‘बौ-गजानी’ का मतलब है-दुल्हन को समर्पित करना। जब दुल्हन
को समर्पित किया जाता है, तब कन्या पक्ष के कथाशिल्पी या ‘गेंखूली’ नाम के चारण
कवि अपने सुमधुर एवं सुरीले कंठ से गाना गाकर नववधू को उसकी सास के हाथों सौंप
देते हैं।
अत्येष्टि क्रिया
चाकमा समाज में अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो
उसके शरीर को सफेद कपड़ों से ढक दिया जाता है। उस समय ढोलक में एक विशेष ताल दिया
जाता है, जिसे सुनकर लोगों को समझ में आ जाता है कि गॉव में किसी के घर में मृत्यु
हुई है। तब आसपास के पड़ोसी वहाँ आ जाते है। पुराने जमाने में इस अवसर पर ‘लोरी’
नामक बौद्धतान्त्रिक / पुजारीगण ‘आगरतारा’ (धर्म ग्रन्थ) सूत्र का पाठ करते थे
किंतु आजकलइस अवसर पर बौद्ध भिक्षुओं को घर में आमंत्रित कर मंगलसूत्र का पाठ कराया
जाता है। उसके बाद शव को श्मशान में जलाया जाता है। अगले दिन सुबह मृतक का बड़ा
बेटा या फिर कोई रिश्तेदार श्मशान जाकर चिताभस्म से हड्डियों का संग्रह करता है।उसके
बाद उस स्थान पर सफाई करके उसमें केले का पेड़ लगा दिया जाता है तथा उसी दिन
रिश्तेदार, परिवार जनों के साथ मिलकर श्राद्ध का दिन निश्चितकरते हैं। श्राद्ध सात
दिन, नौ दिन, ग्यारह दिन या फिर इक्कीस दिन के बाद भी हो सकता है। श्राद्ध के दिन
बौद्ध भिक्षुओं को आमंत्रित किया जाता है एवं बौद्ध धर्म के आचारानुसार मंगलसूत्र
का पाठ एवं सामर्थ्य के अनुसार बौद्ध भिक्षुओं को विभिन्न प्रकार की सामग्री दान
में दी जाती है। उसके अलावा सहस्र प्रदीप प्रज्वलित किए जाते हैं या फिर आकाश
प्रदीप (फदना) उड़ाया जाता है और गाँव के लोगों को भोजन कराकर श्राद्ध कर्म संपन्न
किया जाता है।
श्रृंगार गीत
चाकमा लोकगीतों में श्रृंगार रस का प्राधान्य है। इसके
माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका अपने मन की बातों को एक-दूसरे से व्यक्त करते हैं। यथा-
कालि कुच्याल पेरेलुं
धला कुच्याल पेरेलुं
नानान देजकुल बेड़ेलुं
आजाय-आजाय भाजिलुं
बारिज्या बजकाल हादेलुं
नपेलुं किउजन त-दक्या
कामे-करजे तोदक्या
रूबे-रंगे चोदक्या
नफेलुं किउजन लक्खी रै त दक्या
उपर्युक्त गीत मेंप्रेमीअपनी प्रेमिका के रूप-रंग पर मोहित
है। प्रेमी कहता है कि जिस तरह गन्ने को पीस कर रस निकाला जाता है, ठीक उसी तरह
मैं भी अपने आपको निचोड़कर अपने बलबूते बहुत कुछ संचय करूंगा। मैंने देश-विदेश का
चक्कर लगाया है, परंतु तुम्हारी तरह सुंदर नारी कभी नहींदेखी। सच में तुम अतुलनीय
हो।
विरह गीत
चाकमा लोकगीतों में विरह का स्वरूप अति वेदनात्मक होता है। इन
गीतों में नर-नारी की व्याकुलता,प्रणय-निवेदन एवंएक-दूसरे के लिए तड़प आदि मनोवेगों
का समावेश रहता है। प्रेम में संयोग एवं वियोग अनिवार्य तत्त्व हैं। विरहीप्रेमी-युगल
एक-दूसरे से दूर होने का दर्द भली भांति समझते हैं। एक-दूसरे के प्रति जो गहन
प्रेम भावनाएँ है, विरह के माध्यम से ही व्यक्त होती हैं। चाकमा का एक प्रसिद्ध
विरह गीत है -
शिलत्तले तुधिं सअ
केय्या नदेगं सुनं बअ
खेलन तास तारा रं बेईनेई
मेय्या जरेलुं गम देईनेई
पानि खेईया पनत्तुन
नित्य न जाय मनत्तुन
उड़ेर बरणी खुयोत्तले
परान जुरेब कुयोत गेले
पानी खेईये द्विमाला दिले शरीलत ही जाला।
अर्थात् तुधिं (पक्षी का एक प्रकार) पक्षी के चूजे पत्थर
के पीछे से चीं-चीं की आवाज में माँ का आवाहनकर रहे हैं। आवाज तो सुनाई दे रही है,
पर उन्हें मैं देख नहीं पा रही हूँ। पवन तुम्हारा मधुर संलाप मेरे कानों तक पहुँचता
है पर मैं तुम्हें देखने में असमर्थ हूँ। जिस तरह प्यासा निर्मल पानी पीकर अपनी
प्यास बुझाता है, ठीक उसी तरह मैं भी तुम्हारी स्मृति-रूपी सुधा पीकर अपनी प्यास
मिटा रही हूँ। बरणी पक्षी जिस तरह कोहरे का सामना करते हुए उड़ जाता है, ठीक वैसे
ही मैं भी तुम्हारे पास उड़कर आ जाना चाहती हूँ।
श्रम गीत
अन्य जनजातियों की तरह ही चाकमा जनजाति की जीवनधारा श्रम पर
केंद्रित है। श्रम गीत इसलिए महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि काम करते समय गीत गाते
रहने से थकान का अनुभव नहीं होता है और साथ ही मनोरंजन भी होता रहता है। इनमें
खेत-खलिहान के गीत प्रमुख हैं। श्रम करते समय जब युवक-युवतियाँ थक जाते हैं, तो मन
बहलाने के लिए कभी-कभार एक-दूसरे से छेड़-छाड़ भी कर लेते हैं। चाकमा युगल खेत में
एक साथ काम करते हैं। इसी कारण उन लोगों को बिना रोक-टोक साथ में मिलजुलकर रहने का
मौका मिलता है। वे मन की भावनाओं का आदान-प्रदान एवं सुख-दु:ख की बातों को बेझिझक
एक-दूसरे को कह सकते हैं। गीतों के माध्यम से युवक युवतियों को रिझाते हैं। जब कोई
युवक किसी युवती का मन मोह लेने में सफल हो जाता है तब युवती भी उसी तरह उत्तर देती
है। लेकिन संगीतालाप में भी युवतियाँ सावधानी बरतती हैं ताकि उनके मुँह से कुछ
अपशब्द न निकले। जैसे;
युवक- चिगन छ्ड़ा चिगन चेई
खुजि डागंर चिगन बेई
छराछरि बिल अब
तर आधर पान खिलिक इल अब?
युवती- ईजरर मादात् बई चान सागोई
खादी मेली दियम पान खा गोई।
अर्थात् युवक खुश होकर युवती को बुलाकर कहता है कि वह उसके
हाथों से बने पान को खाने के लिए तरस रहा है। युवती प्रत्युत्तर में कहती है कि बरामदें
में जाकर चाँद देखो तब तक मैं अपनी खादी (वक्ष-बंधनी) सुखाकर आती हूँ, उसके बाद
पान खाना।
ओली-दागोनी गीत (लोरी)
चाकमा लोकगीतों में ‘ओली-दागोनी गीत’ एक महत्त्वपूर्ण विधा
है।‘ओली-दागोनी गीत’ को ही हिन्दी में को ‘लोरी’ कहते हैं। माँ अपने बच्चे को
पालने में झुलाते हुए (ओली......s.s.s.s….)गाती है। माँ अगर गृहकार्य में व्यस्त होती है तो घर के
अन्य सदस्य नाना-नानी, दादा-दादी या फिर अन्य बच्चे को लोरी गाकर सुलाता हैं। इन
सब गीतों में शायद माँ अपने बच्चे को लेकर सपने बुनती है कि भविष्य में वह अपने
बेटे के लिए बहू लाएगी -
ओली s s s s ओली s s s s
s
सिजि घुम जाय दुलि-दुलि
बेंग दगर्त्तन बेंगी दगर्त्तन भार्जाबाजर तले
सिजि धनत्तेई बौ आनि दिबं डुले-डगरे
ओली रे ओली दागि दी
अर्थात्, ओ मेरे सोना! जल्दी सो जाओ। तुम्हारे लिए एक
सुंदर सी बहू ला दूँगी। ढोल-मंजीरा बजाकर धूमधाम से तुम्हारी शादी करवाऊँगी।
बारहमासा गीत
बारहमासा विभिन्न ऋतुओं में नर-नारियों द्वारा गाए जाने
वाले जीवनाश्रित विरह गीत हैं।इनमें मुख्य रूप से नारी जीवन की करुण कहानी,
आकांक्षाएँ एवं मनोव्यथाएं आदि सजीव हो उठती हैं। चाकमा भाषा में बारहमासा को
‘बारमाच’ कहा जाता है। इस साहित्य में नारी को नर से ज्यादा प्राधान्य मिला है।
इसलिए बंगलादेश एवं भारत के पूर्वोत्तर आदिवासी चाकमाओं का सहज जीवन इन्हीं नारी
चरित्रों के माध्यम से प्रस्फुटित हुआ है। प्राय: इन बारहमासा गीतों में मिलन से
ज्यादा विरह, सुख से ज्यादा दु:ख को ही परिलक्षित किया गया है।
चाकमा बारहमासा गीतों में प्रकृति एवं मनुष्य के बीच जो सहज
प्रेमानुभूति विराजमान है, वही इनबारहमासा गीतों की विशेषता है। इन गीतों में
चाकमा जनजाति के विरह-मिलन, सुख-दुख, जय-पराजय आदि प्रकृति में ही समाहित है। इसलिए
चाकमा बारहमासा में बादल, वर्षा, चन्द्र, सूर्य,वृक्ष, फल,फूल आदि को सांकेतिक रूप
दिया गया है-
चान्दबी बारमाच
मेय्याबी बारमाच
तान्याबी बारमाच
रंजनमाला बारमाच
किरव्याबी बारमाच
माँ-बाप बारमाच
चित्ररेखा बारमाच आदि
चाकमा कवियों द्वारा रचित बारहमासा में ‘तान्याबी बारमाच’
सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। इसमें ‘तान्याबी’ नामक सुन्दरी चाकमा युवती के बारे में
लिखा गया है। वह अत्यंत सुंदरी थी। गॉव के सभी युवक उसके दीवाने थे। उसका रंग-रुप
ही उसके लिए काल बन गया। गॉव के युवक कभी उसके सौन्दर्य की तारीफ करते थे, तो कभी
बदनाम करते थे। इसकारण तान्याबी का जीवन विषमय हो उठा था। उसकी शादीएक बूढ़े
व्यक्ति के साथ करा दी गई और अंत में तान्याबी ने आत्महत्या कर ली।
चाकमा राजा हरिश्चन्द्र राय भी तान्याबी के रुप सौन्दर्य के
बारे में सुनकर स्वयं उसे एक नज़र देखने के लिए जाते है –
तान्याबिये घुम जाए टांगेय फूल मजरी
तान्याबिरे सेदअ जिये हरिश्चन्द्र चौधरी।
अर्थात्, तान्याबी फूल की मच्छरदानी टांगकर सोती है, तान्याबी
को गए देखने हरिश्चन्द्र चौधरी।
लोकनृत्य
नृत्य या लोकनृत्य को चाकमा भाषा में ‘नाच’ कहा जाता है।
संभवत: पालि शब्द ‘नच्च’ से नाच की व्युत्पत्ति हुई है। लौकिक उत्सव, प्राचीन
परंपरा एवं कर्म संस्कृति के माध्यम से ही चाकमा जनजातियों के लोकनृत्य समूह का
उद्भव हुआ है। चाकमा जनजाति के बिजु उत्सव के माध्यम से ‘बिजु नाच’ की सृष्टि हुई
है। यह नाच अत्यंत आकर्षक होता है जिसमें युवक-युवतियां खुशी से नाचते हैं। साथ ही
साथ नृत्य के समय एक प्रकार की ध्वनि (हेsss ओsss) भी उच्च स्वर में निकालते हैं।
बिजु उत्सव को चाकमा समाज में एक पवित्र उत्सव के रूप में
माना जाता है। यह उत्सव अप्रैल महीने में मनाया जाता है जो लगातार तीन दिन तक चलता
रहता है। प्रथम दिन को ‘फूल बिजु’, द्वितीय दिन को ‘मूल बिजु’ एवं तृतीय दिन को
‘गोज्येई पोज्ये दिन’ कहा जाता है। इन तीन दिनों में चाकमा समाज में प्राणी हत्या
नहीं की जाती है। प्रत्येक घर में पायनतोन (पांच सब्जियों के मिलाबत से बना हुआ
व्यंजन), खीर, मुखरोचक खाद्य, शराब आदि रखा जाता है। लोग एक-दूसरे के घरों में घूम-घूमकर
नाचते-गाते एवं खाते हैं।बिजु नृत्य की तरह‘जूम नृत्य’ भी चाकमा संस्कृति की धरोहर
है, जिसमें नर-नारी की भावना, हर्षोल्लास, नृत्यकला, कृषिकार्य, जूमखेती एवं फसल
उत्पादन आदि का वर्णन मिलता है। केवल जूम खेती को केन्द्रबिन्दु मान कर ही नर-नारी
जूम नही करते अपितु विभिन्न सामाजिक अनुष्ठानों में भी उनके द्वारा जूम नृत्य किया
जाता है।
पालागान (लोकगाथा)
चाकमा साहित्य में लोकगाथाओं का विशिष्ट स्थान है। चाकमा
भाषा में लोकगाथा को ‘पालागान’ (Ballad)कहा जाता है। चाकमा चारण कवि ‘गेंखूली’ लोग बाँस एवं लकड़ी
से बना हुआ वाद्ययंत्र ‘बेहुला’ के जरिए सुर-लय-ताल के संयोग से कहानी को गीतों के
माध्यम से सुनाते हैं। इसमें छोटी सी कहानी को गीतों के माध्यम से गाया जाता है
तथा व्यर्थ प्रेम, अवैध प्रेम, प्रेमी-प्रेमिका का पलायन एवं विश्वासघातपरक
कहानियों की ही प्रधानता है।पाला की कहानी वर्णनात्मक होती है।माधुर्य से युक्त इस
कहानी को सात दिन तक लगातार ‘गेंखूली’ द्वारा गाया जाता है।पालागीत गाते समय
‘गेंखूली’ लोगों की व्यक्तिगत अनुभूति भी गान में शामिल रहती है। यह ‘गोंखूली’ लोग
बीच-बीच में लोगों के भूत-भविष्य की भी जानकारी भी देते रहते हैं। पालागीत के गाने
के अवसर पर मंगलपात्र में चावल, पान, सुपारी, केला, आमपत्ता, सहित एक रुपया सजाकर
गेंखूली के सामने रखा जाता है।इसमें नाटकीयता नहीं होती। बीच-बीच में चाकमा
श्रोतागण उ--हु--हु--हु ध्वनि उच्चारित करके गेंखूली के उत्साह को बढ़ाते है। इस
प्रकार लोकसाहित्य के विषयविस्तार में कहानी भित्तिक पालागान का स्थान अतुलनीय है–
राधामन-धनपुदि पाला
लोरबो मिदुंगी पाला
चादिगां छारापाला
लक्खी पाला
बुद्धलामा (सादेंगिरि पाला)
नरधन-नरपुदि पाला
गोजेन लामा
उपर्युक्त पालागान समूह में से ‘राधामन-धनपुदि’ पाला सबसे
ज्यादा प्रसिद्ध है। यह एक प्रणयमूलक लोककथा है। इसे सात अध्यायों में बाँटा गया है। जैसे-
जुम काबा
बार्गी लड़ा
घिला पारा
फूल पारा
लुईछागा
रान्या बेड़ा
मेला हधा आदि
इस पाला में राधामन एवं धनपुदि के जन्म से लेकर विवाह तक के
प्रेम का वर्णन किया जाता है।
लोककथा (पश्चन)
चाकमा जनजातीय लोकसाहित्य में लोककथा का स्थान अद्वितीय है।
ये कथाएँ लोक-जीवन में गहरे तक समाहित हैं। प्राचीन काल से ही युद्ध कथाएँ श्रुति
परम्परानुसार चली आ रही हैं। बूढ़ी दादियाँ बच्चों को रात में कथा सुनाकर उनका
मनोरंजन करती हैं। इन सब लोककथाओं के रचनाकार कौन हैं?अभी तक अज्ञात है। परंतु
सुदीर्घकाल से लोकजीवन में ये लोककथाएँ चर्चित है। चाकमा लोककथाएं मुख्यत: तीन
प्रकार की हैं –
पुराकथा
रूपकथा
उपकथा
पुराकथा (Myths) प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के अधिकतम विश्वास, चिंताभावना,
मानसिक उत्तेजना, आचार-विचार, भय-भीति, विपत्तियों से छुटकारा पाने की व्याकुलता,
धर्मीय चेतना, हृदय के आवेग आदि के ही स्वरूप हैं। लोक संस्कृति के प्राचीन उपकरण
पुराकथा ही हैं। इसमें धार्मिकविश्वास की भरमार है। देवता, पृथ्वी तथाराजाओं के संबंध
में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं।सतीशचन्द्र घोष द्वारा रचित ग्रंथ‘चाकमा जाति’(1909) में चाकमा
समाज में प्रचलित दो कथाएँ मिलती हैं। इन दो कहानियों को उन्होनें ऐतिहासिक कहानी
के रुप में अभिहित किया है : ‘जामाई मारनी गल्प’ एवं ‘गोमती नदीर कथा’आर.एच.एस.हार्चसनद्वारा रचित ‘चटगाँवहिलट्रैकडिस्ट्रिक्टगैजेटियर’ (1909)में ‘जामाई
मारनी गल्प’ अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं।
पुराकथा में चाकमा जाति के सांस्कृतिक विश्वास गहराई तक
जुड़े हैं। पहाड़, नद-नदी, पशु-पक्षी आदि को केन्द्रबिन्दु बनाकर ही पुराकथाएं
प्रचलित हैं। इन कहानियों में संस्कार एवं अलौकिक शक्ति में विश्वास की प्रवणता
दिखाई देती है।
रुपकथाओं में रोमांसधर्मिता की प्रधानता के साथ ही
कल्पनाशक्ति का विस्तार मिलता है। इसमें एक नायक, एक खलनायक तथानायक को सहायता
करने वाला चरित्र एवं शक्ति, नायिका, जादुद्रव्य,प्राचीन देवता या स्वर्गीय पुरुष
भी रहता है। घात-प्रतिघात के माध्यम से रुपकथा की कहानी आगे बढ़ती है। नायक विघ्न-बाधाओं
को पारकर विजय श्री का वरण करता है। साधारणत: रुपकथाओं में 31 क्रियाशीलता (Function) विद्यमान रहती हैं, पर कुछ क्षेत्रों में कम भी हो सकता है। कहानी परिभ्रमण के
समय कभी-कभार विषय का हेर-फेर हो सकता है पर क्रियाशीलता का परिवर्तन नहीं होता।
कहानी की परिवर्तनीय शक्ति को‘Variable’एवं
अपरिवर्तनीय उपादन को ‘Constants’कहा जाता है।
रुपकथा की कहानी लम्बी होती है। आकाश-मिट्टी-समुद्र, मरुभूमि, पर्वत, कल्पना एवं वास्तविकता
का समन्वय, लौकिक इन्द्रजाल, मनुष्य के मनोवेग, जैसे; सुख-दु:ख, हँसना-रोना आदि चित्र
रुपकथाओं में देखनें को मिलते हैं। चाकमा समाज में रुपकथा का काफी प्रचलन है।
अब्दुस सत्तार द्वारा रचित ‘आदिवासी संस्कृति और साहित्य’ में ‘बाँदरीर कितता’ नामक रुपकथा मूल चाकमा भाषा में
प्रकाशित हुई है।
उपकथा रुपकधर्मी लोककहानी या नीतिवाचक लोककथा में कहानियाँ
संक्षिप्त होती हैं। उपकथा के चरित्र में पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्षलता एवं
मनुष्य भी उसी श्रेणी में आते हैं। मनुष्यों को छोड़कर जो चरित्र उपकथा में होते हैं,
वह भी मनुष्यों की तरह ही आचार-व्यवहार एवं वार्तालाप करते हैं। कहानी के अंत में
नीतिपरक उपदेश का होना अनिवार्य है। नीतिवाक्य के उद्देश्य से ही कहानी का ढांचा
तैयार किया जाता है। चाकमा समाज में कई उपकथाएँ प्रचलित हैं। बंकिम देउयान ने ‘चाकमा
रुपकहानी’ ग्रन्थ में ‘टुनटुन और हुनो बेड़ाल’ नामक उपकथा का संकलन किया है।
मंत्र सहित्य
चाकमा लोकसाहित्य का एक विशेष भाग है ‘मंत्रसाहित्य’। चाकमा
भाषा में मन्त्र को ‘मन्दर’ कहते हैं। इन सब मंत्रों में चाकमा प्राचीन सर्वप्राणवाद
के लौकिक विश्वास, धर्माचरण, पूजार्चना आदि लोक सांस्कृतिक तथ्य मिलते हैं। देवी-देवताओं
की प्रार्थना एवं भक्ति-निवेदन केछन्दमय वाणीरुप ही मंत्र हैं। चाकमा समाज में
प्राचीन काल से ही मंत्र का प्रचलन होता आया है। गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा चली आ
रही यह मंत्र परंपरा चाकमा तांत्रिक ओझा व्यावहारिक जीवन में लोगों की चिकित्सा के
लिए प्रयोग में लाते हैं। चाकमा भाषा में तांत्रिक ओझा को ‘बोद्य’ कहा जाता है।
चाकमा जनजातियों के धार्मिक संस्कृति के ऊपर हिन्दू,
तांत्रिक बौद्ध, नाथ एवं इस्लाम धर्म का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसके बहुत से उदाहरण
चाकमा मन्त्र साहित्य में देखने को मिलते हैं। चाकमा मन्त्र साहित्य में विभिन्न
धर्म के देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है। जैसे-
राम, शिव, लक्ष्मण, माँ काली, हनुमान, माँ बिझोरी (विषहरी)
---(हिन्दू)
आलिमपीर एवं जिन्दागाजी ---(इस्लाम)
सिजिला, बलभद्र, तारादेवी ---(तान्त्रिक बौद्ध)
गोरखनाथ --- (नाथपंथ)
नरसिं एवं सिबेंपुदि --- (चाकमा लौकिक देव-देवी)
बुरपारा मंदर चाकमा का एक प्रसिद्ध मंत्र है -
दे-रे गंगा – दे-रे पानी
अबुझ मानेई शुद्ध गरं
शुद्ध गरि पाधां घर
मर नां देवीर पुत्र शिव-शंकर
जुड़ो छ्ड़ा जुड़ो पानी
सुरन गरं उरं मनि
सुजं नाले भरं पानी
दे-रे गंगा – दे-रे पानी .....
अर्थात्,
दो माता गंगा पानी दो
अबोध मानवगण को शुद्ध करता हूँ।
शुद्धिकरण के बाद उन्हें घर भेजता हूँ
मेरा नाम देवी पुत्र शिव-शंकर
शीतल स्रोतस्विनी के शीतल जल
स्मरण करता हूँ मैं उरंमणि (गुरू) को
प्रवाहमान स्रोत में पानी भरता हूँ
दो ! माता गंगा पानी दो .....
यह एक प्रकार का शुद्धिकरण मंत्र है।
बानाह (पहेलियाँ)
चाकमा लोकसाहित्य में मजेदार पहेलियों की भरमार है। चाकमा
भाषा में इसे ‘बानाह’ कहते हैं। इन पहेलियों का प्रधान उद्देश्य मनोरंजन है। इसके
भीतर एक रहस्य छिपा होता है जिसका उत्तर श्रोता को ही देना होता है। कभी-कभार
ऐसी-ऐसी बातों का वर्णन होता है जो हास्यरसोत्पादक होती हैं। पहेंलियों को सुनने
वाले कभी- कभार खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं। प्राचीन काल में चाकमा समाज में प्राय:
नियमित रूप से पहेलियों की चर्चा होती थी। ठंड के मौसम में सुबह एवं शाम नारी-पुरुष,
वयस्क-बच्चे सभी लोग एकत्र होकर अग्निकुण्ड के चारों ओर बैठ जाते थे। आस-पास के
पड़ोसी भी वहाँ आकर सम्मिलित होते थे। इस सभा में पुरानी बातों का सिलसिला चलता ही
रहता। बातों ही बातों में पहेलियों की सँमा बँध जाती थी।
पहेलियों के माध्यम से सूक्ष्म बुद्धि एवं चिंतनशीलता का परिचय
मिलता है। लोकसाहित्य के जो रचयिता हैं,
उनकी बुद्धिमत्ता की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। दैनिक जीवनयात्रा का विषय,
शारीरिक अंग, प्रकृति, जीव-जन्तु, पक्षी, कीट-पतंग, आदि के विषय क्षेत्र से भी
पहेलियों का उद्भव माना जाता है। कुछ पहेलियाँ इस प्रकार हैं-
हिलत बिलत पानि नेई
गाजअ आगात्कुया –(नारिकुल)
(पहाड़ की घाटी में पानी नहीं है
पर पेड़ के ऊपर कुआँ –नारियल)
एई देगे एई नेई
एई देजत ते नेई –(देबा झिमिलाना)
(अभी देखा अभी नही है
इस देश में वह नहीं है –बिजली)
आइजिले तगाय, पेलेह् न आने –(पथ)
(खो जाने से खोजते है, पर मिल जाने से अपने साथ नहीं लाते –रास्ता)
सिरा नेई पेदा मानुच गिले –(सिलुम)
(सर नहीं है पर मनुष्य को निगल जाता है –शर्ट/कपड़ा)
डागहधा (लोकोक्ति)
लोक साहित्य की एक प्राचीन विधा है लोकोक्ति, जिसे चाकमा
भाषा में ‘डागहधा’ कहते हैं। चाकमा लोकसमाज में ‘डागहधा’ के विषय में यह धारणा
प्रचलित है कि अगर कोई किसी को बुलाता है अर्थात् उच्चस्वर में सत्य वचन बोलता है
तो उसे ‘डागहधा’ कहते हैं। यह अनुमान मात्र है। चाकमा समाज में प्राचीन काल से ही
लोकोक्तियों का प्रचलन होता आया है। किसी भी संदर्भ में या बातों ही बातों में लोग
इसका प्रयोग करते हैं। इसीलिए मूल वाक्य को कहने से पूर्व कहा जाता है कि –
‘सेत्तेई डागे हईय्येदे’ अर्थात् डागने कहा था। परंतु यह किसी को नहीं मालूम कि
डाग नाम का व्यक्ति कौन था? इसी संदर्भ में कहा जाता है कि वे एक पंडित थे। दरअसल
‘डाग’ कोई व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। यह शब्द बौद्ध तांत्रिक साधक सम्प्रदाय
कानाम है। चाकमाओं के धार्मिक इतिहास से पता चलता है कि चाकमा जनजाति एक जमाने में
बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। शायद इसीलिए वे लोग बौद्धतांत्रिकों के डाग सम्प्रदाय
वाले पंडितों के विषय में जानते थे अथवा यह भी हो सकता है कि अपने ही सम्प्रदाय के
बीच ‘डाग’ नामधारी पंडितों का आविर्भाव हुआ था। इसी कारण कोई उपदेशात्मक नीतिवाक्य
बोलने से पूर्व ‘डाग’ नाम के पंडितों का नाम उच्चारित किया जाता है। जैसे -
कालत पड़िले बाबा बाबा
काल फुरिले शाला
अर्थात, विपत्ति के समय ही बाबा-बाबा सम्बोधन करके अनुरोध
करते हो और विपत्ति टल जाने पर साला कहकर तिरस्कार करते हो।
जात्रुन आगे धान
ता कधानि तान
अर्थात, जिसके पास धन होता है, वही धनी व्यक्ति कहलाता है।
चाकमा लोक साहित्य में लोकोक्तियाँ सबसे ज्यादा समृद्ध हैं।
इस प्रसंग में लोक संस्कृतिविद् डॉ० दुलाल चौधरी द्वारा चाकमा लोकोक्ति समूह को
सात भागों में विभक्त किया है। यथा—
कृषि मूलक
पशु-पक्षी विषयक
प्रकृति विषयक
धर्म विषयक
सामाजिक सम्पर्क विषयक
देह एवं देहतत्व विषयक
इत्यादि...
उक्त लोकगीत चाकमा समाज की वह रीढ़ हैं जिससे इस समाज का
वजूद निर्मित हुआ है, लेकिन आज इन लोकगीतों पर अस्तित्त्व का संकट मंडरा रहा है।
आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह गहरे और अनियंत्रित आँधियों का दौर है, जिसने
साहित्य और संस्कृति को हाशिए पर ला दिया है। लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य पर आज जो
प्रहार हो रहे हैं उससे सामूहिकता की भावना को चोट पहुँच रही है।
लोकसाहित्य परिवेश या प्रकृति का निरीक्षण खुली आंखों से
करता है और उसेआंख बंद कर कल्पना तथा सपनों में भरता है और जीवन की हर भावना को
प्रकृति के सादृश्य से अभिव्यक्त करता है। लोकसाहित्य अपनत्व और ममत्त्व के छोटे
दायरे को बड़ा आकार देता है, यही लोकमंगल का भाव लोकसाहित्य की प्राणवत्ता है।
आज आवश्यकता है कि हम भूमण्डलीकरण, औद्योगीकरण और तकनीकी
सभ्यता के दबाब से उत्पन्न उपभोक्तावादी संस्कृति को पहचान
कर उन तमाम प्रहारों को व्यर्थ करने का प्रयास करें जो सामाजिक सहजता के साथ
लोकसाहित्य को बिलुप्तता की ओर ढ़केल रहे हैं।
संदर्भ :
1.त्रिपुरा आदिवासी : (सं.)नरेशचंद्र देबबर्मा, कुमुदकुंदु
चौधरी एवं विमानधर, त्रिपुरा दर्पण प्रकाशन,अगरतला –2009
2.त्रिपुरार
आदिवासी - जीबन उ संस्कृति : सुरेन देबबर्मा, पारुल प्रकाशन अगरतला –1997
3.लोक और लोक का
स्वर : विद्यानिवास मिश्र, प्रभात प्रकाशन - नई दिल्ली
4.लोकसाहित्य की
भूमिका : डॉ.कृष्णदेव उपाध्याय, साहित्य भवन प्रकाशन – नई दिल्ली
5.नया पथ :
जुलाई-सितंबर - 2010
अध्यक्ष*
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा
विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर
अगरतला –799022
मो. : 09436040948
शोधार्थी#
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा
विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर
अगरतला –
799022
मो. :09774315065