देवराज
"सनालैबाक" (स्वर्ण-भूमि) के नाम से विश्व भर में विख्यात मणिपुर भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित राज्य है । बाईस हज़ार तीन सौ छप्पन वर्ग कि०मी० क्षेत्रफ़ल वाला यह राज्य संस्कृति , समाज और प्रकृति-वैभव की दृष्टि से अपने प्राचीन नाम के अनुरूप स्वर्ण-भूमि ही है । मणिपुर में सर्वाधिक जनसंख्या मीतै (मैतै) जाति के लोगों की है ।’लाइहराओबा’ इसी जाति का धार्मिक-अनुष्ठान है। यह मीतै जाति के गहन जीवन-दर्शन, उत्सवप्रियता और कलात्मक-रुचि को एक साथ प्रस्तुत करता है ।
लाइहराओबा से जुडी़ अनेक पौराणिक-कथाएँ मीतै-समाज में प्रचलित हैं । इन्हीं में से एक कथा के अनुसार नौ देवताओं (लाइपुङ्थौ) ने मिलकर पृथ्वी को स्वर्ग से उतारा था । उस समय सात देवियाँ (लाइनुरा तरेत) जल पर नृत्य कर रही थीं । उन्होंने विशेष नृत्य-भंगिमाओं के साथ पृथ्वी को संभाला और जल पर स्थापित कर दिया । अपने मूल रूप में पृथ्वी बहुत ऊबड़-खाबड़ थी । इसे रहने योग्य बनाने का दायित्व माइबियों (विशेष पुजारिनें) को सौंपा गया । उन्होंने इसे नृत्य-गति-नियंत्रित चरणों से समतल किया । इस प्रकार पृथ्वी का निर्माण हो जाने के बाद ’अतिया गुरु शिदबा’ और ’लैमरेन’ ने निश्चय किया कि वे किसी सुन्दर घाटी में नृत्य करेंगे । खोज करने पर उन्हें पर्वत-मालाओं से घिरी एक घाटी मिली, जो जल से परिपूर्ण थी । अतिया गुरु शिदबा ने घाटी को परकोटे की तरह घेरे पर्वत-माला में अपने त्रिशूल से तीन छेद किये, जिससे जल बह गया और पृथ्वी निकल आई । गुरु शिदबा और देवी लैमरेन ने अन्य सात देवियों के साथ इस पृथ्वी पर नृत्य किया । माना जाता है कि देवताओं की प्रसन्नता का यह प्रथम नृत्य था । उसी की स्मृति में लाइहराओबा नामक धार्मिक-अनुष्ठान संपन्न किया जाता है ।
लाइहराओबा संबन्धी दूसरी कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में देवताओं ने सभा करके विचार किया कि देव
-व्यस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिये एक राजा (सलाइलेन) की आवश्यकता है । विचार-विमर्श के पश्चात ’नोङ्पोक मालङ्’ नामक देवता को सलाइलेन बनाने पर सहमति हुई । इसके बाद आनंदोत्सव मनाया गया । उसी की स्मृति में लाइहराओबा की परंपरा शुरु हुई ।
लाइहराओबा से जुडी़ एक और कथा भी प्रचलित है । इसका संबन्ध ’नोङ्पोक निङ्थौ’ नामक देवता और ’पान्थोइबी’ नामक देवी की प्रणय-कथा से है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि इन दोनों ने तय किया कि पारस्परिक प्रेम का भोग करने के लिये वे दोनों संसारी प्राणी के रूप में जन्म लेकर एक-दूसरे को प्राप्त करेंगे और मानवी-लीला करते हुए प्रेमानंद का अनुभव करेंगे । इसके बाद नोङ्पोक निङ्थाऔ ने एक जनजातीय बालक और पन्थोइबी ने राज-कन्या के रूप में जन्म लिया । युवावस्था आने पर दोनों के मध्य प्रेम का बीज अंकुरित हो गया, किन्तु पान्थोइबी का विवाह खाबा वंश के एक युवक के साथ कर दिया गया । ससुराल आने के बाद पान्थोइबी अपने प्रेमी से मिलने के लिये व्याकुल रहने लगी । वह कुछ ऐसे काम करने लगी कि जिनसे नाराज़ होकर उसकी सास उसे घर से निकाल दे और वह सरलता से अपने प्रेमी के पास चली जाए । कभी-कभी वह बाघ की सवारी करती थी । अंन्तत: एक दिन वह जनजातीय युवक के रूप में मानव-लीला करते नोङ्पोक निङ्थौ के पास पहुँच गई । उधर खाबा अपनी पत्नी की खोज में निकल पडा़ । चलते-चलते वह उसी स्थान पर पहुँच गया, जहाँ नोङ्पोक निङ्थौ और पान्थोइबी थे । तब उसने जान लिया कि वे दोनों साधारण मानव न होकर देवता हैं । यह पता चलते ही खाबा और उसके परिवार वालों ने नोङ्पोक निङ्थौ की पूजा-अर्चना की तथा आनंदोत्सव मनाया । तभी से लाइहराओबा प्रारंभ हुआ ।
लाइहराओबा का संपूर्ण अनुष्ठान अनेक चरणों में संपन्न होता है । सबसे पहले ’लाइ फि सेतपा’ होता है, जिसके अंतर्गत लाइहराओबा उत्सव के पूर्व देव-स्थान की अच्छी तरह सफ़ाई होती है तथा देवताओं को नव-परिधान अर्पित किया जाता है । इसके पश्चात ’लाइ इकौबा’, अर्थात प्राण-प्रतिष्ठा का चरण संपन्न होता है । इसके अंतर्गत माइबा-माइबी (ओझा और वैद्य के मिश्रित चरित्र वाले स्त्री-पुरुष) नर्तक-दलों और भक्तों के साथ देवता के प्राण लेकर आते हैं । ये प्राण एक घडे़ में जल या पृथ्वी से लाए जाते हैं । यह घडा़ विशिष्ट वेशभूषा वाली स्त्री सिर पर ढोकर लाती है । प्राणों की रक्षा के लिये परंपरानुमोदित वस्त्र धारण किए भक्त-जन उस स्त्री के आगे-पीछे चलते हैं । इसके पश्चात होइलाओबा (विशिष्ट गायन) और लाइबौचोङ्बा (विशिष्ट नृत्य) का अवसर आता है । एक ओर सृष्ट-उत्पत्ति की कथा विस्तार के साथ गाई जाती है, जबकि दूसरे के अंतर्गत नृत्याभिनय द्वारा देवताओं के निवास हेतु झोंपडी़ निर्मित करने का भाव दर्शाने वाला नृत्य किया जाता है । झोंपडी़ में से नोङ्पोक निङ्थौ बाहर निकलते हैं । उनके हाथ में ’शगोल काङ्जै’ का डण्डा (मणिपुरी पोलो में प्रयुक्त) होता है । उनकी पान्थोइबी से भेंट होती है और दोनों श्रृंगारिक नृत्य करते हैं । इसके साथ गायन चलता रहता है ।
लाइहराओबा अनुष्ठान के अवसर पर गए जाने वाले गीतों को मुख्य रूप से चार वर्गों में रखा जाता है
--- औग्री, खेनचो, अनोइरोल और लाइरेम्मा पाओसा । मणिपुरी वर्ष के चार महीनों (लाङ्बन, मेरा, हियाङ्गै, पोइनु) को छोड़ कर शेष आठ महीनों (शजिबु, कालेन, इङा, इङेन,थवान, वाकचिङ्, फैरेन, लमदा) में यह अनुष्ठान कभी भी संपन्न किया जा सकता है । इसके मनाने की अवधि तीन, पाँच, सात या ग्यारह दिन होती है । लाइरोइ, (अर्थात समापन) के दिन माइबा-माइबी ’शोय खाङ्बा’ नामक पूजा करके भक्त-जनों की अकाल, रोग आदि से रक्षा की प्रार्थना करते हैं । अन्त में ’पेना’ नामक लोक-वाद्य पर ’नोङ्गरोल’नामक गीत गाया जाता है ।
लाइहराओबा मीतै जाति ही नहीं, संपूर्ण मणिपुर की प्राचीन संस्कृति के भव्य रूप का प्रतिनिधि अनुष्ठान है । विश्व-सभ्यता के विकास में ऐसे अनुष्ठानों की महती भूमिका है|
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बहुत ही शानदार जानकारी परक लेख.....आगे भी इसी तरह लिखते रहैं....अगली कङी की प्रतिक्षा मैं
जवाब देंहटाएंदुर्लभ जानकारी उपलब्ध करने के लिये साधुवाद।
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