घर से लौटा हूँ
लेकिन लौटा कहाँ हूँ
घर तो मैं कभी गया ही नहीं
खोजता ज़रूर रहा घर
अपने भीतर अपने बाहर
मगर वह कभी मिला नहीं मुझे
अकेले क्षणों में पिघलते चौराहों पर
आवाजों के ऊंचे पहाड़ पर चढ़ कर
बुलाया भी मैंने घर को
कि आओ यार
एक बार तो आ जाओ मेरे पास
मगर वह सुनता तब ना!
ऐसा पत्थर-दिल क्यों हो जता है घर ?
दूर क्यों चला जता है घर किसी-किसी से?